चल रे मनवा अपने गाँव
बुला रही है आज सुहानी धूप वहाँ और उस हरे पीपल की शीतल छांव
बालक बन खेलेंगे लुकाछिपी और आँख मिचोनी हम,
खाएँगे खट्टे-मीठे आम
भरेंगे जी भर किलकारियाँ; हो नंगे लगाएंगे
नदिया में छलाँग, बिना दिये कोई दाम
माँ सेकेगी चूल्हे की आग पर मक्की की रोटियाँ और कड़ाही में सरसों का साग
खाएँगे हम पेट भर ताज़े मक्खन के साथ और फिर दोनों हाथ फैला, सेकेंगे आग
खींचेंगे चुटिया बहना की और रो लेंगे आँखें मल जब पड़ेगी माँ से डांट-फटकार
जब किया न होगा ‘होमवर्क’ तो कर बहाना पेटदर्द का, नहीं जाएँगे स्कूल, हो बीमार
पिलाएंगे दूध कटोरी में कर माँ से छीना-झपटी, जब ले
आएंगे गोदी में उठा कोई पिल्ला आवारा
रोएँगे बिलख बिलख जब कान मरोड़ गुस्साये बापू हमसे छीन, छोड़ आएंगे दूर हमारा नन्हा प्यारा I
ऊफ यह ऊब शहर की, यह शोर, धुआँ , जहर-सनी मायूस हवा, दौड़ भाग, यह भीड़
कहीं इमारत या दुकान या गाड़ी, ना पेड़ ना झाड़ी, बेचारी चिड़िया भी जहां ढूँढे नीड़
‘व्हाट्सप्प’, ‘ट्विटर’ में डूबी दुनिया सारी, तनातनी और तनाव, नीरस जीवन, हर चेहरे पे नकाब
कहीं दंगे, कहीं फसाद, कहीं बर्बर रेप, गाली, गोली, धर्म के नाम पर अधर्म, क्या क्या दूँ हिसाब
कब होती सुबह और कब ढलती रात क्या मालूम,
छुट्टी के दिन भी काम, या बोरिंग शॉपिंग मॉल
मँडराते बुलडोज़र, गिरते पुल, एक्सप्रेसवेज़ बन जाएँ दरिया, यह है यारो ‘डिवेलेपमेंट’ का कमाल
न दिखते जंगल, न पहाड़, न पावन भोर, न तारे चाँद, खाएं बासी फल-सब्जी जो बिकती महंगे
दाम
याद आते है गाँव के खेत हरे, वह कुआं, नदी का छोर और ढलता
सूरज शर्मिला; वह शौख, सुर्खायी शाम।
आ, चल रे मेरे मनवा, चलते हैं अब बस अपने
उस वही पुराने गाँव।
जहाँ रुक जाता है जवां सूरज भी दिल थाम, जब
चलती हैं ठुमक, ठुमक गाँव की छैल
छबीली छोरियाँ
औढ़ मटमैली चदरिया, उठा सिर पे छलकती
गगरिया, हँसती हैं जब खिलखिल, मेरे गाँव की चंचल गोरियाँ
जहां झूम उठता है हर पेड़ जब कहीं दूर टीले पर बैठ बजाता है बांसुरी मधुर, गडरिया बंजारा
मैं भी चलाऊँगा हल खेत में, नाचूंगा नाटी में, गाऊँगा ‘चम्बे रा गीत’ बन किसी का अपना प्यारा
जहाँ पसरा रहता है आपस में भाईचारा और प्रेम, सुख
दुख में सब हैं देते एक दूजे का साथ
हो अगर कहीं कलह-क्लेश भी तो मिल बैठ बुजुर्गों संग, मिटा लेते हैं द्वेष, बढ़ा प्यार का हाथ
जहाँ होती है हर भोर जब मुर्गा बांका देता है
बांग, और आती है घर गाय जब
होती है शाम
मैं भी लूँगा अंगड़ाई जब खिड़की से ताक कहेगी सूर्य किरण : “भोर भयी, अब निकलो अपने काम। “
आ, चल
रे मेरे मनवा, चलते हैं अब बस अपने
उस वही पुराने गाँव।
छोड़ शहर की आपाधापी जहां दिल दिमाग बस रटता है हर पल, हर पग, बस पैसे का ही नाम
पसरा है सुनसान वीरान मरुस्थल मन में: अब
जाना ही है गाँव मुझे , छोड़ झमेले और सब काम
बैठ पहाड़ी पे अकेला देखूंगा इंद्रधनुष, सुनुंगा चिड़िया का मधुर राग, घूमूँगा आवारा सा, गुमनाम
बिछा बिस्तर आँगन में बतियाऊंगा चाँद,
सितारों से और सब बिछुड़े प्यारों से, जब गहरायेगी शाम
दादी-अम्मा से सुनुंगा कहानी राजा-रानी की,
दादू से किस्से भूत-चुड़ैलों के- आँखें तान और दिल को थाम
देख ‘छिंज्ज’ मेले में बजाऊँगा सीटी , बजाऊँगा ढोल-टमक भी, शादी-ब्याह में खाऊँगा हरे पत्तल में
‘धाम’
सीख ‘बया’ से कैसे बनता है तिनका-तिनका घर, बनाऊँगा मैं भी सुंदर
कुटिया, दूँगा उसका सुंदर नाम
झूमूँगा तितली संग, चमेली से ले महक मिटाऊंगा
दुर्गंध नफरत की हर गली- है इससे भला और क्या
काम ?
आ, चल रे मेरे मनवा, चलते हैं अब बस अपने
उस वही पुराने गाँव।
There is nothing nicer than visiting my village where still I am called by my nick name . During rainy season when streams sound more boisterous will always miss our Dhauladhar
ReplyDelete