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               चल रे मनवा अपने गाँव   आ , चल रे मेरे मनवा , चलते हैं अब बस अपने उस वही पुराने गाँव बुला रही है आज सुहानी धूप वहाँ और उस हरे पीपल की शीतल छांव बालक बन खेलेंगे लुकाछिपी और आँख मिचोनी हम , खाएँगे खट्टे-मीठे आम भरेंगे जी भर किलकारियाँ ; हो नंगे लगाएंगे नदिया में छलाँग , बिना दिये कोई दाम माँ सेकेगी चूल्हे की आग पर मक्की की रोटियाँ और कड़ाही में सरसों का साग   खाएँगे हम पेट भर ताज़े मक्खन के साथ और फिर दोनों हाथ फैला , सेकेंगे आग खींचेंगे चुटिया बहना की और रो लेंगे आँखें मल जब पड़ेगी माँ से डांट-फटकार जब किया न होगा ‘ होमवर्क ’ तो कर बहाना पेटदर्द का , नहीं जाएँगे स्कूल , हो बीमार पिलाएंगे दूध कटोरी में कर माँ से छीना-झपटी , जब ले आएंगे गोदी में उठा कोई पिल्ला आवारा   रोएँगे बिलख बिलख जब कान मरोड़ गुस्साये बापू हमसे छीन , छोड़ आएंगे दूर हमारा नन्हा प्यारा I     ऊफ यह ऊब शहर की , यह शोर , धुआँ , जहर-सनी मायूस हवा , दौड़ भाग , यह भीड़ कहीं इमारत या   दुकान या गाड़ी ,   ना पेड़ ना झाड़ी , बेचारी चिड़िया भी जहां ढूँढे नीड़ ‘ व्हाट्सप्प ’, ‘ ट