एकला चलूँगा
कोरोना का कहर बरपा, गुजर ही गयी बरस
2021 की लम्बी, मुश्किल रात
छोड़ गयी अपने/पराये बिछुडों की, और राह
नापते बेबसों की यादों भरी दुखद सौगात
अब कब से आशा की बांग दे रहा है सर उठा, 2022
का सरपट खिसकता साल-
और मेरे जन्म दिवस पर, देख जिज्ञासा की
निगाहों से मुझे, है पूछ रहा बारम्बार एक सवाल:
“पगले कब तक ढूँढते फिरोगे जीवन में सही-गलत
के माने उलझ कर धर्म-ग्रंथों के मकड़ीजाल में?
‘पाप-पुण्य’ के माने ही खोजते रहोगे क्या विभिन्न
चश्मों से, डूब शब्दकोशों के मायावी जंजाल में?
‘गर जीना है तो कभी तितली/खग संग उड़ो
स्वछन्द, कभी बनो सुगन्धित कमल-पुष्प, कभी तरुवर की शीतल छाँव
और उगल कर सब हिंसा/नफ़रत, बनो सूरज, चाँद,
सितारे, और फैलाओ लौ करुणा-प्यार की इस दुखड़े संसार में हर गाँव
क्षुद्र विचारों, गुरुरों, चतुराइयों की
पैनी धार से अपने ही पर काट उड़ ना सके तुम नभ के नीले अनंत दामन में
अरे, अब तो पी लो घूँट कुछ एक, सजे हैं अभी
भी रंग कमाल के मधुशाला के खुले मनोहर आँगन में
दकियानूसी लोग जो करते हैं सवाल भोहें
चढ़ा, नजरों से संदेहों की बिजली गिरा, कहते हैं “फरेबी”, “सनकी”, “झूठा” और “मक्कार”
कह दो उन्हें ‘गर परखना ही है तो आईने-दिल
से; - “सच-झूठ” का ही नहीं अकेला, मिलेंगे तुम्हें पैमाने बेहतर और कई हज़ार
क्या संकोचों, मतभेदों, ग़लतफ़हमियों, “बुद्धिमत्ताओं” में
सड़-उलझ कर बिता दोगे यह सरपट दौड़ते बाकी
के भी साल ?
या भर आँचल में पुष्प-महक, निगाहों में आसमां, सीने में फ़राख़-दिली, उड़ोगे बन प्रेम-पंथी- उन्मुक्त,निर्मल,बेमिसाल ?”
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मानता हूँ बेझिझक कि मुझमें हैं खामियां कई - आखिर एक इंसान ही हूँ क्षण-भंगुर, साधारण सा मगर
नहीं मैं लकीर का फ़क़ीर; एकला ही सही, चलूँगा
बस उसी राह दिखलाएगी जो खरी-खोटी अपनी ही नज़र
हाँ मिल जाता ‘गर चलते, सूफ़ी धुन में मस्त
कोई यार फ़क़ीर मतवाला, होता सुहाना मेरे उड़नखटोले का अनजाना यह सफ़र
पर नहीं मेरी हस्ती, हैसियत और ऐसी फितरत कि करूं किसी को बाध्य चलने को अपने संग इस अनसुने, दूरस्थ, मायावी, प्रीत-नगर I
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