नदिया की आवाज़


                    

भोर जब निद्रा त्याग लेती है अंतिम अंगड़ाई, मैं निकल पड़ता हूँ सूनी सी  राह मेरी मनभाई

सिमट रही होती रैना जब व चाँद सितारे ओझल, देख जगते सूरज की आँख- सुर्ख, गर्मायी

श्यामल पर्वत भी जब  लगता तकने पूरव को; लगते पेड़ झूमने, सुन भागती रात की आहट

और निंदिया रानी कहती: “अब आऊँगी कल, ले पिटारी सपनों की- कुछ मीठे, कुछ नटखटI”

 

सन्नाटे की पसरी इस झीनी चादर  को चीरती तो बस कुत्ते की भौं और अपने  ही  कदमों की आवाज़

कहीं सीधी डगर, कहीं मोड़ - जैसे जीवन में - फिर वह पथ, जहां नदिया भोर का नित करती आगाज़

जहां देवदार, तो  चील कहीं, देख मुझे, ले भीनी मुस्कान, लगते मेरी जग-भटकी, रूठी रूह को हलाने

और दूर उधर से बहती नदिया कहती: “एक कान इधर भी, हैं मेरे दामन में भी जिंदा बहुत से अफसाने I

                                                                             *

नदिया की साएं-साएं  कभी लगती मुझको जैसे शिशु-प्रेम से भरी सुना रही हो मुझे लोरी, मीठी सी,अनुपम

या दूर भगाने  मेरे अंधे मन का गहरा तम, नफरत का ज़हर, सुना रही हो पर्वत से निकली एक मीठी सरगम

कभी कहती: “मैं हूँ प्रेम-दूत, देख तो मेरी रेशम सी चदरिया,, ढक ले तू भी अपना यह थका-हारा सा वदन,

वायु के मृदु पंखों पर बैठ निकली  हूँ मैं अश्रु-जल से धोने हर राही का विष-मैल जो पसरा हो उसके तन-मनI”

 

या शायद  मीठी लय में बुला रही हो मुझे  नदिया अपने  पास, बतियाने मुझसे, और सुनाने अपनी ही अमर प्रेम कहानी:

और बतलाने कि देखो सुंदर चाँद, तारे चंचल व डूबता सूरज रंगीं- हैं सब प्रेमी मेरे ,पर मैं तो हूँ बस सागर ही की दीवानी,

 देख कैसे झूमती चली हूँ आज अपने दिलवर को लुभाने करती हूँ खुली मुहब्बत जिससे, देख जरा मेरी मद-मस्त जवानी I

प्रिय, कठिन तो है डगर प्यार की, पर है इसी में निहाँ जीवन का सच-सार, यही है दिव्य किरण, वरना यह  दुनिया है फ़ानी I

 सपनों के उड़नखटोले में बैठ उड़ लो तुम भी दूर कहीं और गाये जाओ बस अपनी ही प्रेम-धुन निज  सुर में मधुर अलबेली

छोड़ संगदिल दुनिया के झमले, बैठ ले आ मेरे छोर, बाँट ले मुझ संगअपना सब दुख दर्द, मैं ही हूँ तेरी सच्ची सखा-सहेली I

रुकना नहीं बस चलते रहना मुझ सा परिवर्तन की राह, मिलेंगे तुम्हें भी नए शहर और गाँव व जीवन के रंगीन कितने आयाम

दक़ियानूसी सोचों  के मकड़जाल से निकल शौख झरने सा बहते रहना, महकाते रहना सब उजड़े बाग, बिना किए विश्राम I

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कभी सोचूँ मानो सुना रही हो  रो रो, अपना ही किस्साए ग़म व सितम जो ढाता है जालिम इंसान इस पर नित दिन

है घोंटता गला डैम बना, छलनी करता वक्ष, तो कहीं पिलाता जहर नाली का, काला कर देता इसका निर्मल दामन

यह आवाज़ है इसके गुस्साये आँसू, मेरे कानों में गूँजती इसके दिल की धड़कन छिपा है जिसमें हर मानव को संदेश:

“मैं  हूँ जीवनदायनी पुत्री पर्वत की, न कर मुझ पर ऐसे हिंसक प्रहार हर दिन, होगा न भला, पाल न मुझसे इतना द्वेष I”

                                                                               ***

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

पर्वत भी त्यज स्याह  पौशाक देता पहली मुस्कान, और सुन भागती रात की आहट,

लगते पेड़ भी झूमने 

नदिया से बतियाने, सुनने चिड़िया  के मीठे सुर,

 

Comments

  1. Love has been described in a beautiful n heart touching way by the author taking an example of river which is indeed superb. I m highly impressed by the way how thoughts have been woven in this poem. Good luck.

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  2. Beautifully written! The poem is an experience in itself.

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