मेरी कविता को कुछ ना कहना
कह लो भला-बुरा मुझे चाहे जितना, पर मेरी कविता को अप्रिय कभी कुछ ना कहना
यह तो है स्वप्न-देश में जायी, कोमल, शिशु-सुंदर, चंचल पर भोली, मेरी पूजा का गहना
न जाने यह पाप-पुण्य, छल-कपट, सच या झूठ; लाया हूँ इसे उतार, नभ से सीधा धरती पर
हँस के सुंदर-रंगीं’ पंख पहन, उड़ आवारा बादल सा बन, चाँद-सितारों को बहला
फुसला कर
दिव्य-लोक में गंगा-जल से नहला, इत्र-सने फूलों का
वस्त्र पहना, प्रेम-रस से सींचा है
इसे कई दिन
उगते सूरज से ली है आशा की उजली किरण,
चाँद से मासूम हंसी, और तारों से टिमकता
भोलापन
दोस्त मेरे, यह क्या जाने नफरत की
भाषा? ना यह जाने कलह, द्वेष व बैर, यह तो है परी-लोक से
आई
फैलाने प्यार की धूप, हरने जग में पसरा तम, सुनाने नग्में प्यार के, यह है कृष्ण से भी मांग बांसुरी लायी
मेरी कविता तो है मेरी सांस, मेरी रूह, मेरे प्राण, मेरे दिल की धड़कन, मेरी रग-रग में बहती, है यह पावन धार
पिलाया यह इसे नित सोमरस, पकाया है भट्ठी में
बन लुहार, और मढ़ा है इसे अपने
हाथ, बन कर मैंने चतुर सुनार
परियों सी चलती है यह ठुमक ठुमक, रहती फूलों संग बन
तितली या भँवरा और उड़ लेती बन के पंछी नभ
में दूर
और देती यह सीख: “ऐ पगले मानव, भूल अपना दंभ-हुंकार उड़ ले, जीवन है बस बुलबुला होगा पल में चकनाचूर
मेरी कविता कभी बन कर मेरी अम्माँ,
सुला देती है मुझे सुना लोरी- मेरे भय-चिंता से
उलझे बाल सहला
कभी बन कर ‘बापू’, पकड़ कर कान मुझे समझाती, भटक जाऊँ जब मैं अंधी गली, भूल कर अपनी राह
कभी बन जाती मेरी दोस्त-सखा, ले जाती मुझको मधुशाला भी, भुलाने गम-सितम जमाने
के, उठा कर जाम
कभी बन माशूका कहती: “आ चलें दूर कहीं, करें मुहब्बत खुल्लमखुल्ला, इस धर्मान्ध जगत में
तेरा-मेरा क्या काम?”
*
कौन है हिन्दू, मुस्लिम कौन, कौन है जैन, सिक्ख, ईसाई, यह निगोड़ी क्या जाने, ऊंची है इसकी उड़ान
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा सब में -
कहती यह मुझसे - बस प्रेम-आनंद के सुर
ही पड़ते मेरे कान
सुन-देख ये झगड़े, दंगे, गोली-गाली, जुर्म-कुकर्म, कहीं ‘हाथरस’, या ‘उन्नाओ’, व बेटी या अबला की
चीत्कार
सहमी सी, छिप जाती मेरी गोदी, रो लेती मुझ संग व कहती- धरती-माँ पर हिंसा का अरे यह कैसा है बाज़ार ?
क्यों गली-गली घूम रहा है ‘धर्म’ ले अस्त्र-शस्त्र, गुस्साया?- मैं, मधुबाला सी, सिहर उठूँ देख तेरा
यह कारोबार
क्या दूँगी संदेश मैं वापिस लौट ? आहत हूँ मैं देख-सुन
पर्वत, पेड़, दरिया, सागर, पंछी सब की दर्दीली चीख-पुकार
दिया था ईश ने इसाँ को शांति-प्यार का वरदान, पर
यह क्या? क्यों आज पड़ती है कान, जन
जन की यह हाहाकार?
*
प्रियो, तिलमिलाओ ना इतना
मेरी कविता पर, यह तो है मेरी वीणा
की मधुर, और है देवों की भी
मनभाई झंकार
बिछाओ न कांटे इसकी राह, नहीं दिखाओ इसको आँख, हटा लो अपनी खून-सनी, तीखी खंजर व तेज़
तलवार
बन कर ऊंचे न्यायाधीश या धर्म के ठेकेदार कसो ना कोई तंज़, करो
ना अपनी तुच्छ नैतिकता के इस पर वार
हैं हम सब अज्ञानी, बस माटी के पुतले, मानो मेरी; क्या राजा, क्या रंक, है सबका एक ही वही बस
अंतिम द्वार I
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